Tuesday, September 18, 2018

जमीर मेरा मुर्दा

यह भीड़ हैं मेरे भाई उन नामो की जिनमे कुछ की कुछ पहचान हैं बाकि सारे बेकार मैं परेशान हैं।

इतना चीख के बोल रहे की हिन्दुस्तान मैं फ्रीडम ऑफ़ स्पीच पर ताला लगाया जा रहा पर लानत हैं ऐसी फासिस्ट सरकार पर की इनके मुँह अभी तक खुले हैं।

यह बदस्तूर अपनी जबान चलाये जा रहे हैं और इस चीज से आम आवाम हैरान न हो की उनके ना मूँदगी करे गए नुमाइंदे और नूमंदियो को टीवी के कैमरों की कोई मुफलिसी नहीं हैं। कैमरा चालू और वज़ीफ़े वापस।

वैसे इस बात की ताकीद करनी चाहिए की व्हाट इस स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर टू रिटर्न अन अवार्ड।

जिनको अपनी मेहनत और हौसले से मिले हैं वजीफे वो तो दो टूक मना कर रहे हैं वापसी के लिए।

जिनको खैरात मैं मिले हैं वह दिखा रहे हैं जमीर वापसी का।

अब तक तो कइयों ने इन जमीर वालो से पुछा हैं की हज़रात यह तो जरा शुबहे को साफ़ करे की जब 4500 का कत्लेआम हुआ साल 1984 31/1/2/3 ओक्टोबर नवंबर मैं, तो जमीर क्या, किसी जंजीर मैं जकड़ा था।

जब साल 1989 की सर्द रातो मैं जन्नत-ए-हिन्द से एक कौम को मज़बूर किया उसकी सरजमी को छोड़ने के लिए और ऐसी जड़े काटी की आज तक उस जमी के वाशिंदे अपनी जमी पर सज़दा नहीं कर पाये हैं।

यह नया नया जमीर तब नहीं जगता जब सरकारे एक खानदान की होती हैं या उसकी सरपरस्ती मैं होती हैं।

इस जमीर की भी तफ़सील से तफ्तीश होनी चाहिए की इसकी तकलीफे इतनी मियादी क्यों हैं।

हुज़ूर इस कदर भी न वापस करिये की अगली बार तो क्या किसी बार मैं साकी मना करदे की ना हुज़ूर मेरा जी गवारा नहीं करता की इस मयखाने की मय आपके खिदमत मैं पेश हो।

क्योंकी लोगो ने आपका लिखा और बनाया देख लिया तो उनका ये हाल-ए-बयां था की ऐसा लिखा की पी हुई उतर गयी और कुछ को पीनी पडी जो बेचारे सूफी थे।

दोनों ही हालातो मैं मय की बेकद्री हैं और यह साकी इतनी भी बेफिक्र नहीं की मय पे इलज़ाम-ए-संगीन लगे इतना भी जमीर मेरा मुर्दा नहीं।



1 November 2015

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