Tuesday, September 18, 2018

रंगों के बीच में कोरे क्यों

उछलते रंग मचलते  गुलाल और अबीर

उड़ते केसरी लाल हरे पीले के बीच

में भीड़ में किनारे कोरा खड़ा

कोरा कोरा ही घर वापस आ गया

इस आस में की भीड़ में से 

कोई आकर रंग लगा देगा

में खड़ा कुछ देर ज्यादा रहा

कोई आया नही मैं कोरा ही रहा

कुछ दौर थे जब हुजूम थे दोस्तो के

उस हुजूम से डर लगता था

महल्ले में कोई कोरा न रहे

उस हुजूम में में यही तय करता था

सुबह से रंगों और गुब्बारों का

जखीरा बनाया जाता था

टेसू के फूल का 

रंग निकाला जाता था

टोलियों में बटकर

शिकारी बन जाते थे

घर वापस आ कर

आईने में भूत नजर आते थे

वक़्त था की बस 

फुर्र से बीत जाता था

कोई बच गया हो तो 

सिर्फ अगली होली तक ही खैर मनाता था

वक़्त फिर और तेज चल दिया

रंग धीरे धीरे दुसरे चढ़ गये

होली अब दूर से हाथ हिला कर

हाथ मिला कर होने लगी

भीड़ बढ़ गई पर हुजूम न बनी

भीड़ में रहकर भी रंग से बच गई

बस आंखे दोस्त ढूंढती रही

पर रंगी भीड़ में दोस्त ना ढूंढ सकी

भागती दौड़ती सिमटती अपनी जिंदगी में

अब ठहराव लेना होगा

अगली होली से पहले 

दोस्त ढूंढना होगा

बेरंग रहे हम 

ये तो लानत हैं

जिंदगी के रंग से रंगे न हो 

यह आदत नही है

चलो अब यह तय हुआ नये दोस्त बनाने हैं

रंग रंगे साज सजे  उस दौर को लाना हैं


अगली होली से पहले
नये दोस्त बनाने हैं



2 मार्च 2018

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