Tuesday, September 18, 2018

आधी अधूरी

मद्धिम से स्याह होती निशा निश्चित ही मादक हवाओं के साथ और गहरी और काली होती जायेगी। 
दिनभर मानसूनी बादलों के साथ अठखेलियाँ करती हुई हवा रात होते होते आसक्त अतृप्त बस भटकी हैं। 
अब पलों का कोलाहल शांत हैं। हवा उन्मुक्त, आच्छादित, स्वछंद स्वयं कोलाहित हैं।

स्पर्श को व्याकुल अधर, कुछ सकुचाये हुए
अज्ञात अभिव्यक्ति की आस में तन पसराये पड़ी हवा उठी यमुना किनारे।
सहसा झीनी चंद्रिमा आवरण से मुक्त हो बिखर गई शहर के निशाचरी रोशनी में।
कंक्रीट के बियाबानो में उलझी कसमसा रही हर तरफ रोशनी में नहा रही

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