मद्धिम से स्याह होती निशा निश्चित ही मादक हवाओं के साथ और गहरी और काली होती जायेगी।
दिनभर मानसूनी बादलों के साथ अठखेलियाँ करती हुई हवा रात होते होते आसक्त अतृप्त बस भटकी हैं।
अब पलों का कोलाहल शांत हैं। हवा उन्मुक्त, आच्छादित, स्वछंद स्वयं कोलाहित हैं।
स्पर्श को व्याकुल अधर, कुछ सकुचाये हुए
अज्ञात अभिव्यक्ति की आस में तन पसराये पड़ी हवा उठी यमुना किनारे।
सहसा झीनी चंद्रिमा आवरण से मुक्त हो बिखर गई शहर के निशाचरी रोशनी में।
कंक्रीट के बियाबानो में उलझी कसमसा रही हर तरफ रोशनी में नहा रही
अज्ञात अभिव्यक्ति की आस में तन पसराये पड़ी हवा उठी यमुना किनारे।
सहसा झीनी चंद्रिमा आवरण से मुक्त हो बिखर गई शहर के निशाचरी रोशनी में।
कंक्रीट के बियाबानो में उलझी कसमसा रही हर तरफ रोशनी में नहा रही
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