विरोध करके गुस्सा दिखा कर एक कार्य तो भलीभांति सम्पन्न हुआ। नकारात्मक ऊर्जा को निकालने का मार्ग मिल गया। मुद्दा था तो अनुसूचित जाति जनजाति से संबंधित कानून का कानून के दुरुपयोग का, पर विरोध पथ पर अग्रसित उन्माद व्यक्ति विशेष के विरोघ से राष्ट्र विरोध में बदल गया।
पिछले साढ़े चार साल की यह बड़ी उपलब्धि है की विरोध कुछ भी हो, किसी भी चीज का हो, वो शीघ्रता से मोदी विरोध के पथ से राष्ट्र विरोध में परिवर्तित हो जाता हैं।
यह विचार करने योग्य विषय हैं भारत विरोध करके क्या प्राप्त हुआ और क्या खाख हुआ।
आज का भारत बंद तो भविष्य में आने वाले बंदो की झलक मात्र हैं। 2019 के चुनाव आते आते तो पराकाष्ठा की सीमाएं भी हदों की अनन्त लकीरों को लांघ जाएंगी।
उन्माद की सीमाओं का आंकलन उन्माद के शांत होने के बाद ही संभव हो सकता हैं।
पर एक प्रश्न बिजली की तरह कौंधता हैं और विवेक को चुनोती देता हैं, यह यकायक वातावरण बदल रहा हैं, यह फिर यह सब लयबद्ध हैं, सुरों में गढ़ा हुआ हैं।
एक के बाद एक होती घटनाएं जो बस विरोध और विषाद से भरी हैं, किसी मंझे निर्देशन की तरफ केंद्रित करती हैं।
अगर थोड़ा ध्यान एकाग्रचित्त करके परिस्थितियों का विश्लेषण करें, मुद्दों और उस पर होने वाले विरोघ की विवेचना करे तो यह संशय होता हैं - क्या यह सब
कैम्ब्रिज एनालिटिक्स की खोजपरक रिपोर्ट के कार्य बिंदु है। जिसके केंद्र में विभाजन, विभाजित, विच्छेद, विरोध के कार्यवाही योग्य पथ प्रदर्शक हैं।
कैम्ब्रिज एनालिटिक्स की खोजपरक रिपोर्ट के कार्य बिंदु है। जिसके केंद्र में विभाजन, विभाजित, विच्छेद, विरोध के कार्यवाही योग्य पथ प्रदर्शक हैं।
हर सामाजिक त्रुटि को कुरेदो, उसमे जहर भरो आग लगाओ और दूर खड़े होकर दूसरों को दिखाओ - की देखो वो कैसे अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं तुम क्या कर रहे हो - धिक्कार ऐसी जवानी पर - खून नही हैं पानी हैं - आग इतनी भड़काओ की लोंगों के मन मस्तिष्क में बस ऋणात्मक ऊर्जा बढ़ती रहे।
विरोध को लोकतांत्रिक असहमति का माध्यम मान लिया जा रहा हैं, पर विरोघ किसका हैं, क्यों है, और उसकी सीमाएं क्या हैं इसका कोई जिक्र नहीं किया जाता हैं।
6 सितंबर 2018
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