बड़े आक्रोष मैं था जनतंत्र ।
बड़ा क्रोधित था जनमन ।।
क्रोध को व्यक्त किया ।
किया वही कार्य जो रोज किया ।।
निकला घर से गंतव्य को ।
कोई तो समय से पहले ही निकल गया ।।
करा हर वह काम ।
जो वह रोज नहीं भी करता था ।।
क्रोधित मन था इसलिए ।
हर कार्य कुछ ज्यादा किया ।।
बंद कर दिया उसने प्रलाप अनर्गल धूर्त का ।
बंद कर दिया विलाप घड़ियाली विरोध् का ।।
मिला यज्ञ मैं आहुति देने का कार्य हैं ।
संकल्पशील हैं जनमन सम्पूर्ण करने इस अध्याय को ।।
धनलोलुपता की पराकास्ठा को छु रहे ।
कुत्सित, कुंठित, मन कुछ ।।
सब देख रहा टकटकी बंधे ।
सड़क पे खड़ा फ़कीर भी ।।
नाम पे मेरे जो चिल्लाहट की ध्वनि कर रहे ।
मेरे मौन को पढ़ते तो ।
दुस्साहस नहीं करते ।।
हम भीड़ हैं हमको पता हैं कहा जमना हैं ।
हमारे धैर्य को परखने की कसौटी मत कस ।।
निर्णायक निर्णय हैं हमारा ।
समय आने पे मन छाप देंगे ललाट पे।
राह सुगम नहीं हैं जिसका संकल्प मैंने भरा हैं।
पर भग्नवशेषो से नवीन निर्माण अब प्रतिज्ञा हैं।।
26 नवंबर 2016
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