आशीष धर जी ने कुछ दिन पहले फेसबुक में एक लेख लिखा था जिसमे आह्वाहन था संकल्प लेने का - अपने भविष्य को बचाने के लिए वर्तमान में कर्म करने होंगे।
उनके लेख से प्रभावित होकर मुझे लगा इसको मुझे हिंदी कविता के रूप में रूपांतरित करना चाहिए।
मेरा प्रयास आपके विचारार्थ प्रस्तुत हैं ।
संकल्प ले - अपने भविष्य को बचाने के लिए वर्तमान में कर्म करने होंगे।
सनातनी हिन्दू विस्मित विचलित सा ।
खड़ा हुआ ठगा हुआ ।।
शताब्दियों की दासता की बेड़ियाँ में जकड़ा हुआ ।
मन तन अवचेतन ।।
कभी तुर्क कभी मंगोल कभी मुगल ।
कभी बरतानी, कभी फ्रांसीसी कभी पुर्तगाली ।।
बंधनो से स्वतंत्र हो कर भी पराधीन स्वप्न से घिरा हुआ ।
खड़ा चौराहे पर सनातनी ।।
प्रताड़ित सोच उसका अस्तित्व ।
पिछड़ा बोलकर खड़ा पीछे किया ।।
फिर खींचते उसको हैं क्यों उलझे भविष्य में ।
ठगा से बुझा सा खड़ा चौराहे पर सनातनी ।।
कभी सोच में भी यह विचार आया नही ।
करना राज हमको इस धारा पे हैं ।।
गुजरे हुये रास्तो में कलियुग के विराम आये हैं ।
जहा भयानक, कुछ एहसास पाये हैं ।।
हम जुड़ रहे हैं उनसे जो खत्म कर देंगे ।
अपनी आकाशगंगा में अपने को ही भस्म कर देंगे ।।
खड़ा उस - इस काल की देहलीज पर सनातनी ।
वही सहमा डरा विस्मित सनातनी ।।
देते नव नवीन निर्मित संगठन ।
ज्ञान के चिथड़े कुछ ।।
सम्हाल धरा अपनी सावधानी से ।
ओ सनातनी ।।
शौक शिकार का इतना नही था जिसे ।
उसे बता रहे बचाने बाघ हैं ।।
पेड़ काट मत कर न बेरहमी ।
जता रहे उसको जो चिपके पेड़ से ।।
ज्ञान की रेतीली बौछार में ।
खड़ा सुन रहा आंख बंद कर सनातनी ।।
धरा पर भरपूर बिखरे हर रंग को ।
निहारता आया हैं पथिक सनातनी ।।
घने जंगलों कलकल नदियों ।
दूब ढकी चट्टानों के मध्य अठखेलिया खेलता था सनातनी ।।
जल जीवन हैं मानकर सहेजता था सनातनी ।
आज गंगा में धुल रहे चमड़ों और घुल रहे जहर से भुझा खड़ा हैं सनातनी ।।
देखकर पिंजर को गंगा में ।
भभक उठता हैं चौराहे पर सनातनी ।।
जुग सहस्त्र योजन पर भानु ।।
गद्य और पद्ध में लिखे हुये हैं ।
विज्ञान और गणित के मर्म ।।
सोच सनातनी विस्मित हैं ।
क्यों हो रहे वर्तमान में थोथे प्रसंग ।।
छिड़ी प्रतियोगिता कूपमंडूको में ।
की निंदक पद्ध किसका हैं प्रासंगिक ।।
संस्कृत की व्यवहारिकता पर उठता शोर कर्कश हैं ।
बाल मन पे प्रभाव क्या होगा यह अदभुत हैं
क्रोध उबलता सनातनी सन्न हैं ।
प्रश्न की उपयोगिता पर दंग हैं ।।
सोच यह विरोधाभास खड़ा चौराहे पर ।
संचय मैं मग्न हैं वो सनातनी ।।
हे राम बोलकर धरती से प्रस्थान किया बहुतो ने ।
राम नाम सत्य हैं बोलकर फूकते श्मशान में ।।
अब बहस करते भगवान् के अस्तित्व पे ।
बड़ी हिम्मत से लड़ रहे राम न्याय से ।।
जिस नाम की माला जापे जापे ।
हिन्द महासागर के वासी ।।
जम्बूद्वीप से सुमात्रा तक प्रभाव उसका छाया ।
कृष्ण राम शिव पर काली छाया का साया ।।
कैसा घोर अंधियारा का ग्रहड़ लगा नाम पर ।
राम को ही खड़ा करा कठघरे में आनकर ।।
लौकिक है या अलौकिक इसकी बहस नही हैं ।
शून्य से अनंत उसका प्रभाव यही है ।।
अपने भगवानो के भग्नावशेष समेटे ।
खड़ा सनातनी चौराहे पे फिर लिए आस के झोले ।।
नालंदा की आग तीन मास जली थी ।
पर उस आग में ज्ञान की चिता जली थी ।।
बख्तियार खिलजी अनपढ़ था और औरंगजेब सयाना ।
वंशज और पूजक इनके अब भारत के टुकड़े करवाते ।।
गुरुकुल मैं विद्या अर्जन करके विद्वान बन जाते ।
यवनी चीनी मलय भिन्न भिन्न विषयों को चुनते ।।
अबके कुछ बिगड़े तो बेच दे अपनी माता ।
विश्विद्यालय बन रहे गद्दारों के अड्डे ।।
फिर इसी यक्ष प्रश्न से घिरा हुआ हैं वो ।
सोच रहा बिन साधना के विद्या धन मिल जाता ।।
सोच के इस भंवरजाल में फ़सा रहा अवचेतन ।
खड़ा सनातनी चौराहे पे फिर लिए मन भारी ।।
श्याम वर्ण में सजे हमारे बाँके कृष्ण मुरारी ।
उनके भक्तों पर लगते आरोप बड़े बेमानी ।।
सनातनी को बना दिया सर्वोच्च महा शाक्तिशाली ।
लगा दिये आरोप उसपर रंगभेद के सारे ।।
सनातनी शक्तिविहीन क्या समझे ये खेल ।
हिटलर सा बता दिया करके यह मेल बड़ा बेमेल ।।
सारे नये समतावादी खंडित कर रहे परंपरा ।
जो नही सनातनी का वो कर रहे हैं उसका ।।
सोच और विचारों में कही भक्त का रंग नही हैं ।
इस नगण्य को जोड़ रहे भगवन के आशीषों से ।।
हर रंग में रंगा सनातनी खड़ा उसी चौराहे पर ।
बेरंग हो गया उसका चोला आरोपो की साज़िश मैं ।।
आर्यावर्त के वासी पर भार पड़ा हैं भारी ।
उसको ये साबित करना हैं वो हैं कल्पवासी ।।
संजय रूपी भेष में घूम रहे चोले वाले ।
कर रहे पंथ परिवर्तन, देके झांसे और कहानी ।।
झूठ की जड़ अब बढ़कर सर्पबेल हो गई ।
उज्ज्वल इस धरा को विषसंचित कर रही ।।
सनातनी के इतिहासों को मिथ्या बोल दिया ।
सर पे उसके शरणार्थी का लेप पोत दिया ।।
इन कुटिल कुकृत्यो से छलनी हो गया सनातनी ।
रिसते घावों को समेटता लड़ता रहा सनातनी ।।
गार्गी मैत्रीय लोपमुद्रा अपाला घोषा ।
लक्ष्मीबाई जीजाबाई चिन्नपा नाम बड़े इतिहासी ।
जिनके ज्ञान शौर्ये के वर्णन बड़े प्रेरणकारी ।।
जब तनो पर वस्त्रों के बोझ बहुत नही थे ।
पर मनुष्य की आंखों में लज्जा बहुत बड़ी थी ।।
उन्मादी अत्याचारी व्यभिचार लेकर आये ।
लज्जा कही दूर हटा कर वासना दिखाई ।।
वक्षो को कम ढ़का देखकर ।
बिन क़ासिम जैसे भौचक्के ।।
थोप दिए कानून रिवाज़ ।
जो रेत के ढेर में पनपे ।।
सर ढ़ककर अब महिलाओं की ।
हिमायती बड़ी मिलती हैं ।।
काले कपड़े में लिपटकर ।
बड़े प्रवर्चन बकती हैं ।।
देख सनातनी क्या था तू क्या तू हो रहा हैं ।
इसी प्रश्नों के चक्रव्यूह में घिरा पड़ा हुआ हैं ।।
फिर सनातनी चौराहे पे खड़ा हुआ हैं ।
अब उसका तन भी संपूर्ण ढ़का छुपा पड़ा हैं ।।
गौतम ने न्यायदर्शन मैं लिखे शास्त्रार्थ के नियम ।
गार्गी - यज्वल्य शंकर - मिश्र मध्य हुए ज्ञान मंथन चरम ।।
परस्पर स्पर्धा का धेय था सत्य की खोज ।
किसी पक्ष को नही था अपने प्राणों का संकट ।।
भग्नवशेषित विरासत खड़ी धर्म की नींव पर ।
संचित सींची परिष्कृत हैं तर्कों की विधाओ से ।।
अब सनातनी श्रापित हैं वर्तमान के कोलाहल में ।
उसको बता रहे क्यो उसका मत बेमानी हैं ।।
सहनशीलता की परिभाषा उसके गले फसाई हैं ।
जिसकी वाणी कई बरसों से धीमी और घबराई हैं ।।
सहन कर रहा सनातनी हर तीर, जो उसको भेदे हैं ।
उपहासों के झंझावर्त में वो निष्क्रिय और अकेले हैं ।।
मुक्त स्वर सबका सुन गूंगा बना हैं सनातनी ।
अपनी सीधी बातों को रखने से डरता सनातनी ।।
तर्कों को अपने हृदय के अंधियारे में छुपाये ।
प्राण प्रतिष्ठा रक्षित हित पूर्ण खड़ा सनातनी ।।
शाक्ति की महिमा जान कर कुछ लोग सयाने हो गए ।
सत्य असत्य ज्ञान तर्क शाक्ति सम्मुख नतमस्तक ।।
यह युक्ति समझ परे हैं, सनातनी से शायद ।
इसीलिये वो फ़सा पड़ा, मध्यमार्ग का कायल ।।
कब तक वाणी को अपनी, मद्धिम स्वर का रखोगे ।
अपने मंदिर अपने भगवन, को कब मुक्त करवाओगे ।।
कब तक अपनी व्यथा को कथा बनाओगे ।
कब अपने कर्तव्यों का निर्वाह कराओगे ।।
सत्य सुनाओ सत्ता को उनकी निंद्रा तोड़ो ।
भटके बजरंगी के जामवंत बन जाओ ।।
स्मरण रहे क्या दिनकर के कथन थे ।
मत भूलो गीतोपदेश जिसमे सत्य सारगर्भित हैं ।।
सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है ।।
कर्मो की श्रृंखला में पूर्ण विराम न आये ।
फल की इच्छा से कर्म न कही बंध जाये ।।
ओ सनातनी तेरे ऊपर संस्कृति आश्रित हैं ।
पुरातन पूज्य इस भूमि का तू ही उत्तराधिकारी हैं ।।
भगीरथ प्रयत्न करने पर गंगा आएगी ।
अपने पुरखों की धरती की तब जय कहलाएगी ।।
11 जून 2018