ऐसे टुकड़े टूकड़े में बात का
क्या मुक़ाम आया हैं
कहा गये वो दिन जब अल्फ़ाज़ ज्यादा थे
और वक्त कम
कुछ वक्त ही अजीब सा बदल गया
लम्हो को तरस गये की दिल की कहे
भागते रहे मंजिल का ना पता
जब रुके तो कितने दूर आ गये
इस दौड़ में तुझको भूले नही
पर चाह के भी तेरे साथ न रहे
तुझे जब चाहिये होगा सर रखने को कंधा
हम पास तेरे आ ना सके
अब रुके हुऐ तो हैं पर अकेले हैं
बस तेरी आस में दूर खड़े है
कोई दुआ तो लगे की तुझे लगे
की अब भी हम वही हैं जो थे
रोज तेरे साथ की झूठी चाह लिये
घूम आते हैं तेरे ठिकाने पर
कुछ वक़्त गुज़ार के चले आते है
खाली अरमानों की आह लिये
ना जाने कब वक़्त बदलेगा
तुझे देखने छूने और गुफ्तगू का समां होगा
यकीन तो यही है की सब दुरुस्त होगा
पर डरते हैं की अगर सब बदल गया