Friday, January 18, 2019

समर शेष है

संघर्षों के तप से दमकी
आजादी को तुम क्या जानो
हर बात मैं सेवक दिखता है
तुम आपातकाल को क्या जानो

नफरत करते हो सेवक से
पर सेना से क्या बैर तुम्हे
सेना ने दुश्मन मारे हैं
पर तुमको क्या फ़र्क पड़े

छब्बीस ग्यारह को दुस्साहस की
सीमा लांघी थी दुश्मन ने
तब वीरो को क्यों रोक दिया
क्यों ओढी चादर कायरता की

उड़ी पर हुए प्रहारों से
प्रहरी का खून खोल गया
घर में घुसकर जब मारे दुश्मन
क्यों छाती पर साँप लोट गया

शहरी नक्सल तुमको भाते
तुम गुणगान उन्ही के करते हो
जो गहरी करते नफ़रत को
तुम प्यार उन्ही से करते हो

टुकड़े टुकड़े करने वालो को
तुम कंधों पर बैठाते हो
द्वेष में इतने जलते हो
भारत को आग लगाते हो

जब राज तुम्हारा चलता था
तो घोटालों के दौर थे
हर चीज का सौदा करते थे
हर चीज को बेचा करते थे

रक्षा सौदे में घोटालों की
आदत इतनी तुम्हे पड़ी हुई
रफाल जहाज के सौदे में
बोफोर्स सूंघने की जिद्द पड़ी

जिस सेतु से सियाराम मिले
उस सेतु को तुम मिथक कहे
जन निर्णय की हर बेला पूर्व
तुमको मंदिर जनेऊ और शिव राम दिखे

अब भी बोल यदा कदा
फिर तुमहारे बिगड़े जाते हैं
प्रभु राम के अस्तित्व पर
कितनी निर्लज्जता तुम दिखलाते हो

मर्यादा पुरुषोत्तम से रखते
तुम द्वंद करने की मंशा
मंदिर छोड़ कुछ और बने
कितनी कुटिल आसुरी इच्छा

भिन्न भिन्न मन से छिन्न भिन्न तर्को से
गठबंधन बैठाया
सब्जबाग के नये जालो से
मायाजाल बनाया

झूठ में लथपथ शहज़ादे को
क्यों प्रधान बनवाने को आतुर
कठपुतली के धागों को
क्यों साधने होता मन व्याकुल

छेड़ के राग हठ बंधन का
किसका दिल भरमाते हो
छल कपट मृगमरीचिका से
कालनेमि बन जाते हो

राष्ट्र खड़ा दोराहे पर
वरण करेगा मत उत्तम
नये संकल्पों की श्रृंखला
पुनः चुनेगा जन गण मन

अब तो बस निर्णायक रण
प्रारम्भ शीघ्र ही होना हैं
स्पस्ट लक्ष सम्मुख हैं
प्राप्त उसे ही करना हैं

समर शेष है अग्नि प्रवजलित
पूर्णआहुति अनिवार्य है
पुरषार्थ की पराकाष्ठा से ही संभव
चक्रव्यूह का नाश हैं

- आशीष -